Tuesday, 13 January 2015

देखो इस गोले पर कैसे रैचों भी बन गया पीके ?

कछू नाम नाहीं हमारा.....पता नाही सब काहे पीके-पीके कहत है ?
इस कहानी का देखे एक कवितात्मक एंव व्यंगात्मक प्रसतुतीकरण......
साभार-आशीष जायसवाल










इस गोले पर आता है एक अलबेला मेहमान,
खड़े-खड़े से कान थे उसके, था नंगा इंसान,
आते ही जब मिला चोर वो रह गया हैरान,
इस गोले की हर खुबी से था वो बिल्कुल अंजान।

नहीं आती थी कोई भाषा पकड़ता था सबके हाथ,
उसकी उल्टी इस हरकत में कोई न देता साथ,
देखे सबका वो फैशनवा समझे चमड़ी की बात,
दमड़ी का जब दम वो समझा ढूढ़े डांसिंग कार दिन-रात।

इस गोले पर रहने के लिए उसने ढुंढ़ा बापु का चेहरा,
इस चमकीले चेहरे से जीवन का संबंध था गहरा,
जब लगा खोजने उस चेहरे को उसने तोड़ दिया सब पहरा,
कर डाली सब कोशिशे नोटो  पर जाकर वो ठहरा।

फिर उसके भाया ने उसे एक भाषा सिखलवाई,
फूल-पैशन से  "व्यक्ति विशेष" ने थी अपनी हाथ पकड़ाई,
छः घण्टे के कांपरेशन ने की थी जिसकी सप्लाई,
खाके पान खुला जब भेजा फिर भोजपुरी उसे आई।

अपना रिमोटवा पाने के लिए वो राजधानी में जा डटा,
क्या-क्या अब बतलाएं था क्या-क्या उसके साथ घटा,
हर मैनेजर और कम्पनियां देते थे उसे मंजिल से हटा,
धर्म-विडंबनाओं और आडंबरो से था ये गोला ऐसे पटा।

फिर रंगो का उसने समझा उल्टा सीधा भेद,
कहां सुहागन काली है और कहां पर काला खेद,
कहां पर जुता पहने या देखे चप्पल में छेद,
कहीं खुशी का कहीं पर गम का कैसा रंग सफेद ?

फिर उसको जा मिली जगतजननी 'जग्गु' कूल,
एस्ट्रोनाएड ने तब बतलाई अपनी स्टोरी-ट्रेजडी फूल,
तब जाके सब समझे रांग नम्बर और फिरकी का मूल,
मीडिया के "एक और सवाल" ने कर दिया तपस्वी को 'लूल'।

इस पूरी इंटरटेनमेंट में बस समझ में आई एक लाईन,
चढ़ाओ प्रसाद, चादर चाहे वाइन.....लव इज " वेस्ट आफ टाईम",
उल्टे-पुल्टे इस गोले का उल्टा पुल्टा जी. के. ,
देखो इस गोले पर कैसे रैचों भी बन गया पीके  ?








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