Sunday, 14 September 2014

न्यू डिमांडिंग कालेज

वैसे चुनावी छात्रो के महत्वकांक्षा को देखते हुए अलग से एक छात्रसंघ चुनाव महाविद्यालय खोल देना चाहिए कम से कम जिसे पढाई करनी है उसे तो कोई परेशानी नही होगी ....महाविद्यालय में भी माहौल ठीक रहेगा...और जिसे नेता बनना है वो छात्रसंघ कालेज में जाये...उसमे टीचर के तौर पे पुराने छात्र नेताओ को रख दे जो चुनाव जीते और जो हारे है उन्हें भी...कम से कम दोनों अनुभव मिले उन्हें की हारने के बाद कैसे हर साल मैदान में पुनः खड़ा हुआ जाय....अब जब नियम बदल गया है तो कैसे दुसरे प्रत्याशी को खड़ा किया जाय बताये ......ये तो हारने का रहा दूसरा ये की जितने के बाद भी कैसे कई सालो तक छात्रसंघ चुनाव में नामांकन के समय प्रत्याशी के साथ दिख जाना.....और उन्हें देख कर लोगो का ये कहना की अभी एन इही हएन .....मतलब छात्रसंघ चुनाव तक ही सिमित है आगे नही गये .......जिले में इस तरह के कई नेता है जो हर जिले परदेश में मिल जायेंगे......जहा छात्रसंघ का मतलब बस हो हल्ला है दिखावीपन है.....अच्छे नेता बनने के कोई गुण नही है......गुण है तो बस जुगाडू नेता बनने के......भौकाली नेता बनने के.........हजारो के पम्पलेट सडको पे गिरा सकते है पोस्टर लगा सबके घर को गन्दा कर सकते है.......भाई चुनाव कालेज का है मुहल्ले व शहर का नही .......पम्पलेट पोस्टर में जो कागज व पैसे बर्बाद किये उससे किसे बच्चे को कापी व किताब दे सकते थे.......ये है सही नेता या छात्र नेता बनने की पहचान.......अरे लेकिन मै ये क्या कर रहा मै भी भाषण देने वाला नेता बन गया .......मंगरूआ तू का सुन थे तू कालेज में थोड़ो हए....तू परधानी में टराइ कर उ चुनाव आवत बा.....

चुनावी असर....बाई नजर

बहुत दिनों बाद कायदे से कोई जमीनी नेता के रूप में सामने नजर आया साईकिल से....भले ही मस्ती के लिए......बाकि तो जो आते है आप जानते है लोकप्रियता सस्ती के लिए...आज नगर के दो महा विद्यालयों के छात्रसंघ का नामांकन था...इसी नामांकन के दौरान किसी छात्र नेता की माला पाकर नगर के बच्चे भी नगर में घूम-घूम कर मस्ती लेते हुए अपना टेम्पो हाई कर रहे थे.....इन्हें देख कर मंगरूआ भी जोशिया गया बोला भैया हमहू अपना हिरोपुक निकाल के नामांकन कर आये क्या.....का पता अख़बार में फोटू भी आये .....हीरोपुक वाला नेता......हमने कहा कालेज का मुहना भी देखो हो कभी बेटा मंगरू .......कालेज का चुनाव है.....सभासदी, परधानी, सांसदी, विधायकी का नही...

इक मोहतरमा की स्कूटी

मेरे साथ गजब हो गया। इम्प्रेशन का बाई गाड डीस्प्रेशन हो गया। दरअसल ऑफिस के बाहर इक मोहतरमा का स्कूटी खराब हो गया। सेल्फ पे सेल्फ लिए जा रही थी पर स्कूटी स्टार्ट होने को तैयार नही था। संदेह वश मैंने उन्हें पहचान लिया। फिर क्या था मैंने मोहतरमा के मोहतरम को फोन लगा के जानकारी दी। उधर वो भी उधरी फोन घुमा रही थी। आखिर मुझे उधर से निर्देश मिला मदद का तो मै गया......जाने को अइसे भी चला जाता मदद को......पर सहमती से जाना ज्यादा सही है.....आजकल के दिनों में।यहा तक तो ठीक रहा इसके बाद जो हुआ उसका टक्कर कोई नवसिखिया ही ले सकता है। स्कूटी चालू करने तो चला गया पर बात वही थी जैसे किसी नोकिया 1100 यूज करने वाले को एंडराएड फोन दे दिया जाये। इतना पता था की ये अब सेल्फ से नही किक से स्टार्ट होगा। कालेज के दिन में अपने चालक का अनुभव था कुछ।पहले दो तीन किक मारी फिर मै खुद मददाभिलासी हो मोहतरमा से पुछ किक मारी और एक्सिलेटर ली फिर क्या .....जो हुआ वो नही होना चाहिए था। गाड़ी तो स्टार्ट हो गई पर इतनी तेज स्टार्ट हुई की मुझे 4-5 मीटर तक दौड़ा ले गई ।इक खड़ी गाड़ी में टक्कर मारी और फिर घूम के 2 मीटर और दौड़ाई इक और खड़ी गाड़ी में टक्कर मारने के बाद किसी तरह रुकी। ये तो शुक्र था रास्ते में कोई सजीव वस्तु नही आई....नही गाड़ी को कुछ हुआ....हल्का फुल्का मुझे जो लगा वो दंड स्वरूप मिला या प्रसाद पता नही। पर जो हुआ कुछ मेरी गलती थी जो बिना किताब पढ़े चल दिया था परीक्षा देने।इसके बाद तो मेरी दुबारा हिम्मत नही हुई मोहतरमा से बोलने की...फिर से स्टार्ट करु क्या । इस बात का अफ़सोस भी रहा क्यूंकि झटका खाने के बाद तरीका समझ आ गया था। फ़िलहाल उन्होंने अपने भाई को फोन कर बुला लिया । मेरी इस खता से मोहतरमा खफा नही हुई ...यही संतुष्टि थी...वैसे उन्होंने मेरे गिरते इंप्रेशन को यह कह कर संभाल लिया की कोई बात नही मै भी गिरती पड़ती रहती हु। ये तो बाद में
उनके मोहतरम से पता चला की उन्होंने मुझे तसल्ली देने के लिए कहा था। वैसे ठीक ही किया और कहा था....मुझे तो डर था की गाड़ी न टूटी हो..और उन्हें ये की मुझे तो नही लगी।वैसे उनके मोहतरम ने बता दिया की लगी कम होगी एक्टिंग ज्यादा करता है.....लगी तो थी इज्जत पे बाट.....जिसका दर्द ज्यादा गहरा होता है। वैसे स्कूटी के किक का सिस्टम भी बहुत उल्टा है। गाड़ी लडकियों के लिए है पर सुविधा नही है उनके हिसाब से। इक तो किक उल्टी तरफ वो भी काफी पीछे की ओर है। कम ही लडकिया होगी जो सेल्फ खराब होने के बाद स्कूटी स्टार्ट कर लेती हो वो भी बैठे बैठे......ये फोकट का एडवाईस है स्कूटी कम्पनी वालो को। काश अपनी भी कोई मोहतरमा होती स्कूटी वाली तो .....स्कूटी स्टार्ट करने का अनुभव हो गया होता।
लप्रेक-लव टाइम ऑफ़ नाच न आवे आगन टेड़ा

Tuesday, 12 August 2014

विस्थापन के दौर से गुजरती कजरी


                                
कजरी की जन्म स्थली माने जाने वाले विंध्याचल के ट्रस्ट और भ्रष्ट की राजनीति में भी जब देश की राजनीति की तरह बरसने के लिए आग ही बची हो, तो नजर मौसम की ओर कर लेनी चाहिए। भले ही देश के अन्य भागो में काले बादल अशुभ ब्रेकिंग न्यूज हो गए हो, पर विंध्य व उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में इस मौसम में बादल शुभ ही है, अगर सुहाने होकर बरसे। सुहाने होंगे तो सावन में कजली गीतो में चार चांद लग जायेंगे । ये अलग बात है कि अब लोग बगीचों में न जाकर ‘‘गुगल सर्च‘‘ कर लेते है। कट, कापी, पेस्ट से फेसबुक पर कमेंट कर खुद को कजरी का काबिल समझने लगते है। जबकि एक वक्त था जब बारिश होती थी तो लोग बगीचों में दौड़ने लगते थे, और अब बरसात होती है तो बरामदे में जाते है कपड़े उतारने के लिए और खिड़की दरवाजे बंद करने के लिए। मैट्रो व आधुनिक शहरों का हाल तो यही है, पर अब विंध्य क्षेत्र भी इससे अछुता नही है। पहाडि़यों में विचरण करने वाले कोयल, डिंगुर की आवाज अब सुनाई नही देती। पहले कजली गीत बनते यर्थाथ से, पर अब वो यर्थाथ ही अब विस्थापित नजर आता है। संयुक्त परिवारो की आधार बेला टूट सी गई है। पोतियांे को दादी के साथ तो भतीजो को ताउ के समय बिताने का समय नही है। कजरी के विस्थापित होने पर कजरी गायिका मालिनी अवस्थी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘ग्लोबलाइजेशन से भले ही बहुत फायदा हुआ हो, पर कजरी को नुकसान ही हुआ है। लोकगीत या कजरी जीवन की शैली है, वो बदला तो गीत-संगीत बदलेगा ही‘‘। संयुक्त परिवारो के टूटने से सब विस्थापित हो गया है। लड़कियों पास अब झूला-झूलने का समय नहीं है, इंट्रेस की तैयारी जो करनी है। किसान का लड़का अब किसानी नहीं करता तो वह मेंड़ पर कजरी क्या गायेगा?



Thursday, 12 June 2014

ईश्वर को ऐडवाइस की गुस्ताखी




भगवान शंकर,
     आजकल आपको मंदिर छोड़ शादियों में सज्जा रूप में देखा तो सोचा पत्र लिख कर अवगत करा दूं...कि आप बड़े सरल हो गये है....पहले जहां कई सालो की  तपस्या के बाद आप भक्त के पास आते थे और अब खुद तपस्या करने वाले स्टाईल में भक्तो का अभिनंदन कर रहे है। समारोह में गया तो कुछ काटूर्न लगे थे। कुछ प्लास्टिक के थे, तो कुछ के अन्दर इंसान छुपे थे। आपको देखा तो सोचा कि आप भी उसी स्वागत करने वाले कार्टून की तरह प्लास्टिक के है। पर ध्यान देने पर आपकी आंखो की हिलती पलके और घंटो खड़े होने की थकान ने बता दिया कि आप प्लास्टिक के नही बल्कि जीवात्मा है। जिन कार्यक्रमो में लोग ईश्वर को पूजते हुए अपने कार्यक्रम की शुरूआत व अंत करते है उस कार्यक्रम में आप ऐसे स्थित नजर आये, यह बात समझ नहीं आ रही कि ऐसा क्यों, कही इंसान अपना बदला तो नहीं ले रहा कि पहले वो खड़ा होता था आप के दर्शन के इंतजार में और आज अब आप खड़े हो रहे है उसके स्वागत इंतजार में। मैं भी तीन घंटे तक वहां रहा और आपके और भी अधिक समय तक खड़े होने की सहनशीलता और सरलता को देख रहा था और सोच रहा था कि कही आप गुस्से में अपना तीसरा नेत्र तो नहीं खोलेंगे.....अगर खोलते तो मैं दण्डवत होने के लिए तैयार था......पर ऐसा कुछ नहीं हुआ... कार्यक्रम अंत समय में आप अपने मंच से उतर और शालीनता पूर्वक चले गये। आपको इस तरह देखकर बस यही सोच रहा था कि आपका क्रोध वाला रूप सही है या फिर ये शालीनता वाला...........तुच्छ भक्त हूं पर इंसान भी हूं तो एक गुस्ताखी मैं भी कर रहा हूं आपको एक ऐडवाइस देकर.......ऐडवाइस अंग्रेजी शब्द है....समझते है ना आप......सारी भगवान आप तो अन्र्तयामी है.....हां तो  मै गुस्ताखी कर रहा था ये कि आप इतने शालीन मत बनिये और थोड़ा बहुत क्रोधित हो लिया करिये.....नहीं तो इंसान......आगे आपसे क्या-क्या करवायेगा......पता नहीं.....बाकी तो आप अन्र्तयामी हईये है। 


                                                                                                                      आपका 
                                                                                                  ऐडवाइस देने वाला गुस्ताख पत्रकार





Saturday, 26 April 2014

डम डम डमी डमी

चुनाव हमेशा चार-पांच प्रमुख पार्टियों के बीच ही लड़ा जाता है, पर हमारे लोकतंत्र की महिमा है कि सभी को अपना भाग्य अजमाने का मौका-मिलता है और मिलना भी चाहिए। पर कुछ प्रत्याशी तो ऐसे खडे़ हो जाते है जिनका कोई जनाधार भी नहीं होता। जो ग्राम प्रधानी व सभासद का चुनाव भी नहीं जीते रहते ऐसे में वे विधायकी हो या सांसदीय सब में अपना भाग्य अजमाने के लिए मैदान में कुद पड़ते है। कुछ निर्दल प्रत्याशी होते है जो जीतते है। पर उनका जनाधार होता है और वे अपने जनाधार के बल पर मेहनत करके अपनी जीत सुनिश्चित करते है। पर आजकल तो सांसदीय का चुनाव हो या विधायकी का सबमें दर्जनो निर्दल प्रत्याशी खड़े हो जाते है, जिनका जनाधार नहीं होता। कई प्रत्याशी तो ऐसे है जो हर चुनाव में मैदान में आ जाते है पर वो कुछेक हजार वोट पाकर वोटकटवा की भूमिका तक ही सिमित रह जाते है। कई तो हजार का आकड़ा भी नहीं पर कर पाते। कई तो इसलिए नामांकन करते है कि उनके आने से अन्य बड़ी पार्टियां उनसे जातिगत वोट कटने के डर से मोलभाव करके उन्हें बैठा दे। ये चर्चा तो पुरानी है नयी चर्चा ये है कि प्रत्याशी बड़ी पार्टियों द्वारा खड़े डमी प्रत्याशी होते है। जिससे वे अपने विरोधी के जातिगत वोट को काटने के साथ ही डमी प्रत्याशी के वाहन व एजेंट का लाभ अपने लिए उठाने के लिए उन्हें चुनाव लड़ाते है। वैसे डमी का जमाना है......मोबाइल के डमी दुकान में दिखते ही.........ऐसे में चुनावी डमी........जय हो डमी महाराज की। 

Monday, 14 April 2014

बनिया पत्रकार का वोट

चुनाव चर्चा के दौरान.....एक मुस्लिम नेता मित्र मिल गये। चर्चा के दौरान उन्होंने कहा कि आप तो बनिया है तो भापजा को ही वोट देंगे। मैने कहा मैं बनिया तो हूं ही पर इससे ये कैसे कह सकते है कि मैं भाजपा को ही वोट दूंगा और पेशे से पत्रकार हूं तो वोट को तो काफी तोल-मोल के ही दुंगा। वो कोई भी किसी भी पार्टी का हो। इस पर महोदय ने कहा कि तो किसे देंगे। तो मैने कहा कि किसे तो नहीं बता सकता पर किस तरीके के नेता को दुंगा वो बता सकता हूं। और ये भी साफ कर दिया कि मीरजापुर जिले से सपा व बसपा के उम्मीदवार उस कैटेगरी में नहीं आते कि उनको वोट दें। क्योंकि बसपा से उस विधायक की पत्नी चुनाव लड़ रही है। जिसे लोगो ने पहले देखा ही नहीं होगा और विधायक जी आम आदमी से कैसे खास बन गये और उन्हें जिताने वाले जस के तस......तो भला उनकी पत्नी जो सामने तक नहीं आती बस गाड़ी में बैठे-बैठे हाथ जोड़ के काम चला रही है। वो जनता के मुद्दो पर कैसे सामने आयेंगी। शायद सब कुछ बिरादरी से हो जाता है बिरादरी की कृपा है। बात सपा के उम्मीदवार की तो उनके मंत्री वाले रूतबे से तो लगता ही नहीं कि वो इस समय चुनाव में भी आम आदमी बनेंगे वो तो आचार संहिता में भी खास बने फिर रह है। सरकार है भाई......। प्रमुख पार्टियों में बची भाजपा, कांग्रेस व आप तो उन्हीं में से चुन लिया जायेगा। जो ज्यादा जानकार होगा, जनता के मसलो पर अच्छी पकड़ रखता होगा, और जो जितने के बाद भी आज की तरह सक्रिय नजर आये.....बाद की बाद पर इतने गुण इनमे ंपरख कर इन्हीं में से किसी एक को वोट दिया जायेगा। मेरे ये विचार इस समय के पार्टी के उम्मीदवारो के लिए है। क्योंकि वोट उम्मीदवार की काबिलियत को देखकर करता हुं....पार्टी की पावर व लहर को देखकर नहीं।

पत्रकारिता के पर्वतदिगार व नीम का पेड़


जिला मुख्यालय का नीम का पेड़ बहुत ही चर्चाए आम हो गया है। इस पेड़ के नीचे कुछ न कुछ चर्चा चलती ही रहती है। धरना प्रदर्शन तो होता ही है। पर सबसे महत्वपूर्ण चर्चा पत्रकारो की होती है। इस नीम के पेड़ के नीचे जिले के अधिकतर पत्रकार इकट्ठा होते ही है। जहां वर्तमान समय के पत्रकारो की कई तरह की चर्चाएं होती है। बीते दिनो पत्रकारिता के कुछ पर्वतदिगार इकट्ठा हो गये। उनकी बाते तो एैसी थी कि उन्होंने ही पत्रकारिता का स्वर्णीम काल बनाया हो। उनमें से एक ने कहा कि हम अपने समय में लिखते थे तो अधिकारी कापते रहते थे। एक ने वहां उपस्थित दुसरे से कहा कि आप की कलम का तो जवाब नहीं। मैं यह सब वहां खड़ा सुन रहा था। तो मैने भी उनमें से एक वर्तमान के पत्रकार से पूछा कि हम जैसे पत्रकार तो आज ही प्रस्फुटित हुए है प्रस्फुटित अर्थात जन्म होना। ऐसे में पत्रकारिता खराब कैसे हो गयी और किसने की। एक बात जो मैने उनसे नहीं पूछा, खुद से और अपने ही समयकाल के पत्रकारो से पूछा कि अगर पत्रकारिता के पर्वतदिगार पत्रकारो की कलम में इतनी ही ताकत थी तो उन्होंने पत्रकारिता छोड़ क्यों  दी ... और पत्रकारिता खराब हुई है तो उसे बिगाड़ने वाला कौन है। एक बात और बताना भुल गया कि पत्रकारिता के महानकाल और खराबकाल के उस चर्चा के दौरान किसी ने उन्हीं पत्रकरो से बातचीत में वहां मौजूद बहु आयामी वाले दुसरे पत्रकार के बारे में कहा कि अरे पता नहीं भईया का जो घर बना है, उसमें सिर्फ मिस्त्री और लेबर लगे थे बाकी समान तो सब ऐसे ही। तब समझ में आया कि  हमारे पवर्तदिगार पत्रकारो की कलम में कितना दम था। इन्होंने अपनी कलम के बूते पत्रकारिता का स्वर्णीम काल नहीं बनया बल्कि अपना भविष्य काल बनाया। तभी बनने के बाद पत्रकारिता छोड़ दी  और मौके मिलने पर कलम की ताकत का एहसास कराते रहते है...... हमारे जैसे आज के प्रस्फुटित पत्रकारो से।

Tuesday, 8 April 2014

जात का फर्क

आज भी गावो में बड़ी जात और छोटी जात का फर्क बरकरार है, समानता है तो बस उनके काम के लिए। 6 जून रविवार को नगर से सटे एक गांव में एक पार्टी का कार्यक्रम था। कार्यक्रम एक बड़ी जात के परिवार में था। वहां पर एक एक पार्टी के उम्मीदवार का स्वागत अभिनंदन कार्यक्रम  का आयोजन किया गया था। मैं भी वहां खबर के लिए फंस गया था। कार्यक्रम स्थल पर बने पंडाल के बीच में बीस-तीस की संख्या में महिलाएं बैठी नेताजी का इंतजार कर रही थी। कार्यक्रम 12 बजे का था और नेताजी ढाई बजे के लगभग आये। कार्यक्रम के बाद भोजन की व्यवस्था थी, उस दौरान देखा कि कार्यक्रम खत्म होने के ऐलान के पहले उन महिलाओं को इशार कर दिया गया, जिसके बाद वो महिलाएं वहां से निकली गयी और फिर भोज शुरू हो गया। मैं पूरे कार्यक्रम तक वहां था, भोजन के लिए मुझे भी कहा गया पर मेरा मन नहीं हुआ। इसके दो कारण थे एक तो भोजन करने पर न्यूज पेड न्यूज हो जाती और दुसरा और भोजन से पहले उन महिलाओं का चला जाना। सोचने लगा कि बात वहीं बड़ी और छोटी जात वाली ही है तभी तो जो महिलांए इतनी देर से कड़ी धुम में बैठी थी वो भोजन के समय क्यों चली गयी, उन्हें भोजन करने का अधिकार नहीं था क्या। मेरे इस कथन पर सफाई भी आयेगी की भोजन बफर सिस्टम था इसलिए गांव की महिलाएं शर्म के मारे चली गयी पर जो नेता महिलाओं को उंचे मकाम पर लाने की बात करते है उनके सामने उनके घर में बफर भोजन करने में क्या शर्म। कार्यक्रम से ही एक बात और कि शायद यही कारण है कि ये महिलाएं सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक है तभी तो जिस समाज के पुरूष सजधज के अपने पारिवारिक राजनैतिक विरासत को दिखा रहे थे उनके घर की महिलाएं पंडाल में क्यों नहीं दिखाई दी। इसलिए पहली लाइन में कह रहा था कि फर्क बरकरार है और समानता है तो सिर्फ अपने काम के लिए।