वैसे चुनावी छात्रो के महत्वकांक्षा को देखते हुए अलग से एक छात्रसंघ
चुनाव महाविद्यालय खोल देना चाहिए कम से कम जिसे पढाई करनी है उसे तो कोई
परेशानी नही होगी ....महाविद्यालय में भी माहौल ठीक रहेगा...और जिसे नेता
बनना है वो छात्रसंघ कालेज में जाये...उसमे टीचर के तौर पे पुराने छात्र
नेताओ को रख दे जो चुनाव जीते और जो हारे है उन्हें भी...कम से कम दोनों
अनुभव मिले उन्हें की हारने के बाद कैसे हर साल मैदान में पुनः खड़ा हुआ
जाय....अब जब नियम बदल गया है तो कैसे दुसरे प्रत्याशी को खड़ा किया जाय बताये ......ये तो हारने का रहा दूसरा ये की जितने के बाद भी कैसे कई सालो तक छात्रसंघ
चुनाव में नामांकन के समय प्रत्याशी के साथ दिख जाना.....और उन्हें देख कर
लोगो का ये कहना की अभी एन इही हएन .....मतलब छात्रसंघ चुनाव तक ही सिमित
है आगे नही गये .......जिले में इस तरह के कई नेता है जो हर जिले परदेश में
मिल जायेंगे......जहा छात्रसंघ का मतलब बस हो हल्ला है दिखावीपन
है.....अच्छे नेता बनने के कोई गुण नही है......गुण है तो बस जुगाडू नेता
बनने के......भौकाली नेता बनने के.........हजारो के पम्पलेट सडको पे गिरा
सकते है पोस्टर लगा सबके घर को गन्दा कर सकते है.......भाई चुनाव कालेज का
है मुहल्ले व शहर का नही .......पम्पलेट पोस्टर में जो कागज व पैसे बर्बाद
किये उससे किसे बच्चे को कापी व किताब दे सकते थे.......ये है सही नेता या
छात्र नेता बनने की पहचान.......अरे लेकिन मै ये क्या कर रहा मै भी भाषण
देने वाला नेता बन गया .......मंगरूआ तू का सुन थे तू कालेज में थोड़ो
हए....तू परधानी में टराइ कर उ चुनाव आवत बा.....
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