रविवार को मै ग्रीन बर्फी {भांग की बर्फी } के आगोश में था ये तो अच्छा था कि खबरों की एडिटिंग व संपादन हो गया था वरना खबरे भी होली के मौसम सी छप जाती पर मामला गडबडा जाता क्योंकि तब गुस्ताखी माफ़ जो लिखना भूल जाते .........बस मौसम ही था होली वाला ..............बहुत सी बाते याद आने लगी जिन्दगी जैसे स्लोमोशन सी हो गई थी ..हम क्या बक हरे थे ..खुद भूल जा रहे थे वो पर्फेक्स्ननिस्ट की फिल्म वाली शार्टटर्म मेमोरी लॉस की लाइन चरितार्थ हो रही थी ...अच्छी बुरी यादे सभी आई ....पर दुःख वाला कुछ ज्यादा ही .....किसका फोन बजा किस्से बात हुई कुछ पता नही था बस बकैती जारी थी .... अंदर का एक्टर जाग गया था जैसे । इंतजार था बस एक डायरेक्टर जो मुझे डायरेक्ट कर सके मेरी खुद की फिल्म ग्रीन बर्फी को। आया वो आया मेरे जज्बातों व भावनाओ को समझने वाला जिसे मेरी हर हरकत की बारीकिय पता है। या यु कह ले की पूरी पीएचडी की है उसने मुझ पर।।मेरा मित्र भाई विवेक। लगा बर्फी की तरह अब मेरी भी फिल्म ग्रीन बर्फी हिट हो जाएगी। मै अभिनय के नैय्या में गोते लगाने लगा। मेरे इमोशन हवाओ से बाते कर रहे थे बिना किसी कट के एक ही टेकअप में सिन किये जा रहा था।
bahut khoob...green barfi ke nashe me doobo diya...
ReplyDeleteise aur bhi aage badhana chahiye tha.