हिंदी प्रेमी मित्र आशीष जायसवाल ने बहुत दिनो के बाद अपनी एक कविता प्रेषित की है। वैसे तो इनकी कई कविताओं का संग्रह मेरे पास है। पर मैं उसे प्रसारित नहीं कर पा रहा हूं। मित्र की इस नयी कविता से बाकी कविताएं। जल्द ही आपको मिलेगा पढने को। तो िफलहाल के लिए आशीष जायसवाल "आशु" की कविता । (गेस्ट कालम)
मैं सोचता हूं तो यह सोचता हूं
जो देखा है सबने मैं क्या वो देखता हूं।
हर पल देखते है नए कलेवर,
अपनो के बदलते यह तीखे से तेवर,
धन की लड़ाई और लालच का मंजर,
जो खुद के दिलो को बनाता है बंजर,
यह पैसे की चाहत है या झूठा दिखावा,
अपनों को ठगना यह कैसा छलावा,
खुद का प्रदर्शन और पैसे का लोभ,
प्रेम की नदियाें में लाता विछोभ,
अपनो का अपनो से यूं ही बिछड़ना,
संपत्ति को लेकर भाई-भाई का लडना-झगड़ना
,
खून के रिश्तो में कैसे आता है यह भेद,
जो टूटे "घर-मंदिर" से उड़ती है रेत,
बनते थे जो बेटे बाप का सहारा,
लगता है उन्हें भारी मां-बाप का गुजारा,
टूट के बिखरने के कैसे बहाने,
समय की गति से क्या बनते अपने बेगाने ?
अब सोचता हूं तो यह सोचता हूं
जो सोचा है मैंने क्या सही सोचता हूं?