Tuesday, 12 August 2014

विस्थापन के दौर से गुजरती कजरी


                                
कजरी की जन्म स्थली माने जाने वाले विंध्याचल के ट्रस्ट और भ्रष्ट की राजनीति में भी जब देश की राजनीति की तरह बरसने के लिए आग ही बची हो, तो नजर मौसम की ओर कर लेनी चाहिए। भले ही देश के अन्य भागो में काले बादल अशुभ ब्रेकिंग न्यूज हो गए हो, पर विंध्य व उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में इस मौसम में बादल शुभ ही है, अगर सुहाने होकर बरसे। सुहाने होंगे तो सावन में कजली गीतो में चार चांद लग जायेंगे । ये अलग बात है कि अब लोग बगीचों में न जाकर ‘‘गुगल सर्च‘‘ कर लेते है। कट, कापी, पेस्ट से फेसबुक पर कमेंट कर खुद को कजरी का काबिल समझने लगते है। जबकि एक वक्त था जब बारिश होती थी तो लोग बगीचों में दौड़ने लगते थे, और अब बरसात होती है तो बरामदे में जाते है कपड़े उतारने के लिए और खिड़की दरवाजे बंद करने के लिए। मैट्रो व आधुनिक शहरों का हाल तो यही है, पर अब विंध्य क्षेत्र भी इससे अछुता नही है। पहाडि़यों में विचरण करने वाले कोयल, डिंगुर की आवाज अब सुनाई नही देती। पहले कजली गीत बनते यर्थाथ से, पर अब वो यर्थाथ ही अब विस्थापित नजर आता है। संयुक्त परिवारो की आधार बेला टूट सी गई है। पोतियांे को दादी के साथ तो भतीजो को ताउ के समय बिताने का समय नही है। कजरी के विस्थापित होने पर कजरी गायिका मालिनी अवस्थी ने ठीक ही कहा है कि ‘‘ग्लोबलाइजेशन से भले ही बहुत फायदा हुआ हो, पर कजरी को नुकसान ही हुआ है। लोकगीत या कजरी जीवन की शैली है, वो बदला तो गीत-संगीत बदलेगा ही‘‘। संयुक्त परिवारो के टूटने से सब विस्थापित हो गया है। लड़कियों पास अब झूला-झूलने का समय नहीं है, इंट्रेस की तैयारी जो करनी है। किसान का लड़का अब किसानी नहीं करता तो वह मेंड़ पर कजरी क्या गायेगा?